जीवन की आपाधापी में November 4, 2006
Posted by Jaya in Harivansh Rai Bachchan.234 comments
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा –
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
था तुम्हें मैंने रुलाया! November 4, 2006
Posted by Jaya in Harivansh Rai Bachchan.70 comments
हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा!
हाय, मेरी कटु अनिच्छा!
था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
स्नेह का वह कण तरल था,
मधु न था, न सुधा-गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
बूँद कल की आज सागर,
सोचता हूँ बैठ तट पर –
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
–
Other Information
Collection: Nisha-Nimantran (Published: 1938)
क्षण भर को क्यों प्यार किया था? October 4, 2006
Posted by Jaya in Harivansh Rai Bachchan.50 comments
अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर,
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’
और न कुछ मैं कहने पाया –
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में –
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
–
Other Information
Collection: Nisha-Nimantran (Published: 1938)
पथ की पहचान September 30, 2006
Posted by Jaya in Harivansh Rai Bachchan.136 comments
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
पुस्तकों में है नहीं
छापी गई इसकी कहानी
हाल इसका ज्ञात होता
है न औरों की जबानी
अनगिनत राही गए
इस राह से उनका पता क्या
पर गए कुछ लोग इस पर
छोड़ पैरों की निशानी
यह निशानी मूक होकर
भी बहुत कुछ बोलती है
खोल इसका अर्थ पंथी
पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
यह बुरा है या कि अच्छा
व्यर्थ दिन इस पर बिताना
अब असंभव छोड़ यह पथ
दूसरे पर पग बढ़ाना
तू इसे अच्छा समझ
यात्रा सरल इससे बनेगी
सोच मत केवल तुझे ही
यह पड़ा मन में बिठाना
हर सफल पंथी यही
विश्वास ले इस पर बढ़ा है
तू इसी पर आज अपने
चित्त का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
है अनिश्चित किस जगह पर
सरित गिरि गह्वर मिलेंगे
है अनिश्चित किस जगह पर
बाग वन सुंदर मिलेंगे
किस जगह यात्रा खतम हो
जाएगी यह भी अनिश्चित
है अनिश्चित कब सुमन कब
कंटकों के शर मिलेंगे
कौन सहसा छू जाएँगे
मिलेंगे कौन सहसा
आ पड़े कुछ भी रुकेगा
तू न ऐसी आन कर ले।
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
कनुप्रिया (समापन: समापन) July 30, 2006
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क्या तुमने उस वेला मुझे बुलाया था कनु?
लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी!
इसी लिए तब
मैं तुममें बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी,
इसी लिए मैंने अस्वीकार कर दिया था
तुम्हारे गोलोक का
कालावधिहीन रास,
क्योंकि मुझे फिर आना था!
तुमने मुझे पुकारा था न
मैं आ गई हूँ कनु।
और जन्मांतरों की अनन्त पगडण्डी के
कठिनतम मोड़ पर खड़ी होकर
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ।
कि, इस बार इतिहास बनाते समय
तुम अकेले ना छूट जाओ!
सुनो मेरे प्यार!
प्रगाढ़ केलिक्षणों में अपनी अंतरंग
सखी को तुमने बाँहों में गूँथा
पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गए प्रभु?
बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता
तुम्हारे इतिहास का
शब्द, शब्द, शब्द…
राधा के बिना
सब
रक्त के प्यासे
अर्थहीन शब्द!
सुनो मेरे प्यार!
तुम्हें मेरी ज़रूरत थी न, लो मैं सब छोड़कर आ गई हूँ
ताकि कोई यह न कहे
कि तुम्हारी अंतरंग केलिसखी
केवल तुम्हारे साँवरे तन के नशीले संगीत की
लय बन तक रह गई……
मैं आ गई हूँ प्रिय!
मेरी वेणी में अग्निपुष्प गूँथने वाली
तुम्हारी उँगलियाँ
अब इतिहास में अर्थ क्यों नहीं गूँथती?
तुमने मुझे पुकारा था न!
मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में
अडिग खड़ी हूँ, कनु मेरे!
कनुप्रिया (इतिहास: समुद्र-स्वप्न) July 30, 2006
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जिसकी शेषशय्या पर
तुम्हारे साथ युगों-युगों तक क्रीड़ा की है
आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु!
लहरों के नीले अवगुण्ठन में
जहाँ सिन्दूरी गुलाब जैसा सूरज खिलता था
वहाँ सैकड़ों निष्फल सीपियाँ छटपटा रही हैं
– और तुम मौन हो
मैंने देखा कि अगणित विक्षुब्ध विक्रान्त लहरें
फेन का शिरस्त्राण पहने
सिवार का कवच धारण किए
निर्जीव मछलियों के धनुष लिए
युद्धमुद्रा में आतुर हैं
– और तुम कभी मध्यस्थ हो
कभी तटस्थ
कभी युद्धरत
और मैंने देखा कि अन्त में तुम
थक कर
इन सब से खिन्न, उदासीन, विस्मित और
कुछ-कुछ आहत
मेरे कन्धों से टिक कर बैठ गए हो
और तुम्हारी अनमनी भटकती उँगलियाँ
तट की गीली बालू पर
कभी कुछ, कभी कुछ लिख देती हैं
किसी उपलब्धि को व्यक्त करने के अभिप्राय से नहीं;
मात्र उँगलियों के ठंढे जल में डुबोने का
क्षणिक सुख लेने के लिए!
आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु!
विष भरे फेन, निर्जीव सूर्य, निष्फल सीपियाँ, निर्जीव मछलियाँ….
– लहरें नियन्त्रणहीन होती जा रही हैं
और तुम तट पर बाँह उठा-उठा कर कुछ कह रहे हो
पर तुम्हारी कोई नहीं सुनता, कोई नहीं सुनता!
अन्त में तुम हार कर, लौट कर, थक कर
मेरे वक्ष के गहराव में
अपना चौड़ा माथा रख कर
गहरी नींद में सो गए हो……
और मेरे वक्ष का गहराव
समुद्र में बहता हुआ, बड़ा-सा ताजा, क्वाँरा, मुलायम, गुलाबी
वटपत्र बन गया है
जिस पर तुम छोटे-से छौने की भाँति
लहरों के पालने में महाप्रलय के बाद सो रहे हो!
नींद में तुम्हारे होठ धीरे-धीरे हिलते हैं
“स्वधर्म!…. आखिर मेरे लिए स्वधर्म क्या है?”
और लहरें थपकी देकर तुम्हें सुलाती हैं
“सो जाओ योगिराज… सो जाओ… निद्रा समाधि है!”
नींद में तुम्हारे होठ धीरे-धीरे हिलते हैं
“न्याय-अन्याय, सद्-असद्, विवेक-अविवेक –
कसौटी क्या है? आखिर कसौटी क्या है?”
और लहरें थपकी देकर तुम्हें सुला देती हैं
“सो जाओ योगेश्वर… जागरण स्वप्न है, छलना है, मिथ्या है!”
तुम्हारे माथे पर पसीना झलक आया है
और होठ काँप रहे हैं
और तुम चौंक कर जाग जाते हो
और तुम्हें कोई भी कसौटी नहीं मिलती
और जुए के पासे की तरह तुम निर्णय को फेंक देते हो
जो मेरे पैताने है वह स्वधर्म
जो मेरे सिराहने है वह अधर्म……
और यह सुनते ही लहरें
घायल साँपों-सी लहर लेने लगती हैं
और प्रलय फिर शुरू हो जाती है
और तुम फिर उदास हो कर किनारे बैठ जाते हो
और विषादपूर्ण दृष्टि से शून्य में देखते हुए
कहते हो – “यदि कहीं उस दिन मेरे पैताने
दुर्योधन होता तो…………………………… आह
इस विराट् समुद्र के किनारे ओ अर्जुन, मैं भी
अबोध बालक हूँ!
आज मैंने समुद्र को स्वप्न में देखा कनु!
तट पर जल-देवदारुओं में
बार-बार कण्ठ खोलती हुई हवा
के गूँगे झकोरे,
बालू पर अपने पगचिन्ह बनाने के करुण प्रयास में
बैसाखियों पर चलता हुआ इतिहास,
… लहरों में तुम्हारे श्लोकों से अभिमंत्रित गांडीव
गले हुए सिवार-सा उतरा आया है……
और अब तुम तटस्थ हो और उदास
समुद्र के किनारे नारियल के कुंज हैं
और तुम एक बूढ़े पीपल के नीचे चुपचाप बैठे हो
मौन, परिशमित, विरक्त
और पहली बार जैसे तुम्हारी अक्षय तरुणाई पर
थकान छा रही है!
और चारों ओर
एक खिन्न दृष्टि से देख कर
एक गहरी साँस ले कर
तुमने असफल इतिहास को
जीर्णवसन की भाँति त्याग दिया है
और इस क्षण
केवल अपने में डूबे हुए
दर्द में पके हुए
तुम्हें बहुत दिन बाद मेरी याद आई है!
काँपती हुई दीप लौ जैसे
पीपल के पत्ते
एक-एक कर बुझ गए
उतरता हुआ अँधियारा……
समुद्र की लहरें
अब तुम्हारी फैली हुई साँवरी शिथिल बाँहें हैं
भटकती सीपियाँ तुम्हारे काँपते अधर
और अब इस क्षण में तुम
केवल एक भरी हुई
पकी हुई
गहरी पुकार हो………
सब त्याग कर
मेरे लिए भटकती हुई……
कनुप्रिया (इतिहास: शब्द – अर्थहीन) July 30, 2006
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पर इस सार्थकता को तुम मुझे
कैसे समझाओगे कनु?
शब्द, शब्द, शब्द…….
मेरे लिए सब अर्थहीन हैं
यदि वे मेरे पास बैठकर
मेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाए हुए
तुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलते
शब्द, शब्द, शब्द…….
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……..
मैंने भी गली-गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने चाहे इनमें कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय,
सिर्फ राह में ठिठक कर
तुम्हारे उन अधरों की कल्पना करती हूँ
जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे
– तुम्हारा साँवरा लहराता हुआ जिस्म
तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंख-ग्रीवा
तुम्हारी उठी हुई चंदन-बाँहें
तुम्हारी अपने में डूबी हुई
अधखुली दृष्टि
धीरे-धीरे हिलते हुए होठ!
मैं कल्पना करती हूँ कि
अर्जुन की जगह मैं हूँ
और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
और मैं नहीं जानती कि युद्ध कौन-सा है
और मैं किसके पक्ष में हूँ
और समस्या क्या है
और लड़ाई किस बात की है
लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना
मुझे बहुत अच्छा लगता है
और सेनाएँ स्तब्ध खड़ी हैं
और इतिहास स्थगित हो गया है
और तुम मुझे समझा रहे हो……
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व,
शब्द, शब्द, शब्द…….
मेरे लिए नितान्त अर्थहीन हैं-
मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ
हर शब्द को अँजुरी बनाकर
बूँद-बूँद तुम्हें पी रही हूँ
और तुम्हारा तेज
मेरे जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन को
धधका रहा है
और तुम्हारे जादू भरे होठों से
रजनीगन्धा के फूलों की तरह टप्-टप् शब्द झर रहे हैं
एक के बाद एक के बाद एक……
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……..
मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं
मुझे सुन पड़ता है केवल
राधन्, राधन्, राधन्,
शब्द, शब्द, शब्द,
तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु -संख्यातीत
पर उनका अर्थ मात्र एक है –
मैं,
मैं,
केवल मैं!
फिर उन शब्दों से
मुझी को
इतिहास कैसे समझाओगे कनु?
कनुप्रिया (इतिहास: एक प्रश्न) July 30, 2006
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अच्छा, मेरे महान् कनु,
मान लो कि क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ
कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण
सिर्फ भावावेश थे,
सुकोमल कल्पनाएँ थीं
रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे –
मान लो कि
क्षण भर को
मैं यह स्वीकार कर लूँ
कि
पाप-पुण्य, धर्माधर्म, न्याय-दण्ड
क्षमा-शील वाला यह तुम्हारा युद्ध सत्य है –
तो भी मैं क्या करूँ कनु,
मैं तो वही हूँ
तुम्हारी बावरी मित्र
जिसे सदा उतना ही ज्ञान मिला
जितना तुमने उसे दिया
जितना तुमने मुझे दिया है अभी तक
उसे पूरा समेट कर भी
आस-पास जाने कितना है तुम्हारे इतिहास का
जिसका कुछ अर्थ मुझे समझ नहीं आता है!
अपनी जमुना में
जहाँ घण्टो अपने को निहारा करती थी मैं
वहाँ अब शस्त्रों से लदी हुई
अगणित नौकाओं की पंक्ति रोज-रोज कहाँ जाती है?
धारा में बह-बह कर आते हुए, टूटे रथ
जर्जर पताकाएँ किसकी हैं?
हारी हुई सेनाएँ, जीती हुई सेनाएँ
नभ को कँपाते हुए, युद्ध-घोष, क्रन्दन-स्वर,
भागे हुए सैनिकों से सुनी हुई
अकल्पनीय अमानुषिक घटनाएँ युद्ध की
क्या ये सब सार्थक हैं?
चारों दिशाओं से
उत्तर को उड़-उड़ कर जाते हुए
गृद्धों को क्या तुम बुलाते हो
(जैसे बुलाते थे भटकी हुई गायों को)
जितनी समझ अब तक तुमसे पाई है कनु,
उतनी बटोर कर भी
कितना कुछ है जिसका
कोई भी अर्थ मुझे समझ नहीं आता है
अर्जुन की तरह कभी
मुझे भी समझा दो
सार्थकता क्या है बन्धु?
मान लो कि मेरी तन्मयता के गहरे क्षण
रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे –
तो सार्थक फिर क्या है कनु?
कनुप्रिया (इतिहास: अमंगल छाया) January 17, 2006
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घाट से आते हुए
कदम्ब के नीचे खड़े कनु को
ध्यानमग्न देवता समझ, प्रणाम करने
जिस राह से तू लौटती थी बावरी
आज उस राह से न लौट
उजड़े हुए कुंज
रौंदी हुई लताएँ
आकाश पर छायी हुई धूल
क्या तुझे यह नहीं बता रहीं
कि आज उस राह से
कृष्ण की अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ
युद्ध में भाग लेने जा रही हैं!
आज उस पथ से अलग हट कर खड़ी हो
बावरी!
लताकुंज की ओट
छिपा ले अपने आहट प्यार को
आज इस गाँव से
द्वारका की युद्धोन्मत्त सेनाएँ गुजर रही हैं
मान लिया कि कनु तेरा
सर्वाधिक अपना है
मान लिया कि तू
उसकी रोम-रोम से परिचित है
मान लिया कि ये अगणित सैनिक
एक-एक उसके हैं:
पर जान रख कि ये तुझे बिलकुल नहीं जानते
पथ से हट जा बावरी
यह आम्रवृक्ष की डाल
उनकी विशेष प्रिय थी
तेरे न आने पर
सारी शाम इस पर टिक
उन्होंने वंशी में बार-बार
तेरा नाम भर कर तुझे टेरा था-
आज यह आम की डाल
सदा-सदा के लिए काट दी जायेगी
क्योंकि कृष्ण के सेनापतियों के
वायुवेगगामी रथों की
गगनचुम्बी ध्वजाओं में
यह नीची डाल अटकती है
और यह पथ के किनारे खड़ा
छायादार पावन अशोक-वृक्ष
आज खण्ड-खण्ड हो जाएगा तो क्या –
यदि ग्रामवासी, सेनाओं के स्वागत में
तोरण नहीं सजाते
तो क्या सारा ग्राम नहीं उजाड़ दिया जायेगा?
दुःख क्यों करती है पगली
क्या हुआ जो
कनु के ये वर्तमान अपने,
तेरे उन तन्मय क्षणों की कथा से
अनभिज्ञ हैं
उदास क्यों होती है नासमझ
कि इस भीड़-भाड़ में
तू और तेरा प्यार नितान्त अपरिचित
छूट गये हैं,
गर्व कर बावरी!
कौन है जिसके महान् प्रिय की
अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ हों?
कनुप्रिया (इतिहास: उसी आम के नीचे) December 3, 2005
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उस तन्मयता में
तुम्हारे वक्ष में मुँह छिपाकर
लजाते हुए
मैंने जो-जो कहा था
पता नहीं उसमें कुछ अर्थ था भी या नहीं:
आम्र-मंजरियों से भरी माँग के दर्प में
मैंने समस्त जगत् को
अपनी बेसुधी के
एक क्षण में लीन करने का
जो दावा किया था – पता नहीं
वह सच था भी या नहीं:
जो कुछ अब भी इस मन में कसकता है
इस तन में काँप काँप जाता है
वह स्वप्न था या यथार्थ
– अब मुझे याद नहीं
पर इतना ज़रूर जानती हूँ
कि इस आम की डाली के नीचे
जहाँ खड़े होकर तुम ने मुझे बुलाया था
अब भी मुझे आ कर बड़ी शान्ति मिलती है
—
न,
मैं कुछ सोचती नहीं
कुछ याद भी नहीं करती
सिर्फ मेरी, अनमनी, भटकती उँगलियाँ
मेरे अनजाने, धूल में तुम्हारा
वह नाम लिख जाती हैं
जो मैंने प्यार के गहनतम क्षणों में
खुद रखा था
और जिसे हम दोनों के अलावा
कोई जानता ही नहीं
और ज्यों ही सचेत हो कर
अपनी उँगलियों की
इस धृष्टता को जान पाती हूँ
चौंक कर उसे मिटा देती हूँ
(उसे मिटाते दु:ख क्यों नहीं होता कनु!
क्या अब मैं केवल दो यन्त्रों का पुंज-मात्र हूँ?
– दो परस्पर विपरीत यन्त्र-
उन में से एक बिना अनुमति के नाम लिखता है
दूसरा उसे बिना हिचक मिटा देता है!)
—
तीसरे पहर
चुपचाप यहाँ छाया में बैठती हूँ
और हवा ऊपर ताजी नरम टहनियों से,
और नीचे कपोलों पर झूलती मेरी रूखी अलकों
से खेल करती है
और मैं आँख मूँद कर बैठ जाती हूँ
और कल्पना करना चाहती हूँ कि
उस दिन बरसते में जिस छौने को
अपने आँचल में छिपा कर लायी थी
वह आज कितना, कितना, महान् हो गया है
लेकिन मैं कुछ नहीं सोच पाती
सिर्फ-
जहाँ तुमने मुझे अमित प्यार दिया था
वहीं बैठ कर कंकड़, पत्ते, तिनके, टुकड़े चुनती रहती हूँ
तुम्हारे महान् बनने में
क्या मेरा कुछ टूट कर बिखर गया है कनु!
वह सब अब भी
ज्यों का त्यों है
दिन ढले आम के नये बौरों का
चारों ओर अपना मायाजाल फेंकना
जाल में उलझ कर मेरा बेबस चले आना
नया है
केवल मेरा
सूनी माँग आना
सुनी माँग, शिथिल चरण, असमर्पिता
ज्यों का त्यों लौट जाना…….
उस तन्मयता में – आम्र-मंजरी से सजी माँग को
तुम्हारे वक्ष में छिपाकर लजाते हुए
बेसुध होते-होते
जो मैंने सुना था
क्या उसमें भी कुछ अर्थ नहीं था?